रांची, झारखण्ड: दिशोम गुरु शिबू सोरेन नहीं रहे. पूरा देश शोक में डूबा हुआ है, झारखण्ड में तो हर घर में, हर गांव में मातम पसर गया है. खाली हाथ लेकिन संघर्ष के लम्बे रास्ते पर चलने का जज्बा लिए घर से निकलकर करोड़ों लोगों की जिन्दगी बदल देनेवाली शख्सियत जब अचानक भौतिक रूप से हमारे बीच से अनुपस्थित हो जाती है, तब उभरता है इतना बड़ा शून्य. वह खालीपन जो हम, आप, हम सभी अनुभव कर रहे हैं, पूरा झारखण्ड, पूरा देश जिसकी अनुभूति कर रहा है.

झारखण्ड के रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में 81 साल पहले 11 दिसम्बर 1944 को जब एक बालक ने पहली बार आँखें खोली तब कहां किसी ने सोचा था कि यही बालक एक दिन लाखों – करोड़ों आँखों में महाजनी शोषण के खिलाफ आक्रोश की चिनगारी भर देगा.एक दिन यही नन्हें हाथ धनकटनी आन्दोलन की मशाल थामेंगे, एक दिन यही नन्हें पांव अलग झारखण्ड राज्य के आन्दोलन की डगर पर सबसे आगे चलते हुए देश के नक़्शे पर एक नए सूबे का आकार तय कर देंगे, किसने सोचा था कि यही बालक एक दिन झारखण्ड की सत्ता का बेताज बादशाह बनेगा, सूबे की सबसे बड़ी पार्टी का सबसे बड़ा नेता होगा, उसकी पार्टी झारखण्ड के सत्ता की बागडोर संभालेगी और वो खुद करोड़ों दिलों पर राज करेगा.

सोना – सोबरन के पूत शिवचरण के पांव पालने में ही दिख गए थे. जी हां, दिशोम गुरु शिबू सोरेन बचपन में शिवलाल और शिवचरण के नाम से ही जाने गए. पिता सोबरन मांझी की गिनती उस समय, उस इलाके में सबसे पढ़े लिखे आदिवासी शख्सियत के रूप में होती थी. वह पेशे से एक शिक्षक थे. बेहद सौम्य स्वाभाव केलेकिन सूदखोरों और महाजनों की आँखों को खटकने वाले. और ये बेवजह नहीं था. उस वक्त महाजन आदिवासियों को कर्ज के जाल में फंसाकर डेढ़ गुणा से ज्यादा वसूलते थे. सूद न चुकाने पर जमीन छीन लेते थे. कई बार गरीब किसान अपने ही खेत में उपजा धान खलिहान से अपने ओसारे तक नहीं ला पाते थे क्योंकि उपजी फसल महाजन जबरन ले जाते थे. इसी का विरोध सोबरन मांझी करते थे. वे हमेशा आदिवासियों को पढ़ने – लिखने के लिए प्रेरित करते थे. ताकि अपना हक़ जान सकें, शोषण के खिलाफ लड़ सकें. इसीलिये तो सोबरन बन गए थे महाजनों और सूदखोरों के आंखों की किरकिरी. और यही वजह थी कि महाजनी शोषण के खिलाफ विद्रोह की चिनगारी बालक शिवचरण की आँखों में भी पनपने लगी थी.

और यह चिनगारी दावानल बन गयी 27 नवम्बर 1957 को, जब शिवचरण के पिता सोबरन मांझी की हत्या हो गयी. केवल 13 साल की उम्र के बालक शिवचरण उस वक्त गोला के राज्य संपोषित हाई स्कूल  में पढ़ रहे थे, आदिवासी हॉस्टल में रहते थे. पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेनने पढ़ाई छोड़ दी. आदिवासी समाज को एकजुट किया और महाजनों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया.

महाजनों से लड़ना आसान नहीं था. केवल इसलिए नहीं कि महाजन बहुत ताकतवर थे, इसलिए भी कि ग्रामीण महाजनों के कर्ज तले दबे हुए थे. सूद नहीं देने पर जमीन हड़प ली जाती थी. शराब पीलाकर सादे कागज पर अंगूठे का निशान ले लिया जाता था. शिबू सोरेन ने गरीब शोषित आदिवासियों को नशामुक्ति का रास्ता दिखाया. शिबू सोरेन ने सिखाया कि लड़ने के लिए पढ़ना होगा और शराब–हड़िया छोड़ना होगा. जादू सा असर हुआ उनके इस आह्वान का.

गरीब आदिवासियों को मानसिक तौर पर मजबूत बनाने के बाद शिबू सोरेन ने धनकटनी आंदोलन शुरू किया. तीर धनुष से लैस आदिवासी युवकों की पहरेदारी के बीच शिबू और उनके साथी जबरन महाजनों के खेतों से धन की तैयार फसल काटकर ले जाते.  धीरे धीरे उनका प्रभाव बढ़ा,आदिवासी समाज ने इस विद्रोही नवयुवक में अपना नायक देखा. उन्हें दिशोम गुरु की उपाधि मिली. संताली में दिशोम गुरु का मतलब होता है देश का गुरु.

अपनी जन्म भूमि गोला के बाद उनको पेटरवार, जैनामोड़, बोकारो और धनबाद में लोग जानने लगे थे. इनके समाज सुधार आंदोलन और महाजनी प्रथा के खिलाफ उलगुलान को बड़ी पहचान मिली धनबाद के टुंडी में. यहां 1972 से 1976 के बीच उनका आंदोलन जबरदस्त रुप से प्रभावी रहा. सैकड़ों आदिवासी किसानों को उन्होंने अपने आन्दोलन के जरिये महाजनों द्वारा हड़पी गई जमीन को वापस करायी.

टुंडी के पोखरिया में उन्होंने एक आश्रम बनाया था, जिसे लोग शिबू आश्रम कहते थे. इसी दौरान लोग प्यार और सम्मान से उनको गुरुजी कहने लगे. लेकिन गुरुजी को राजनीतिक पहचान मिली संथाल की धरती पर यहीं से उनको दिशोम गुरु यानी देश का गुरु कहा जाने लगा.

बाद में बिनोद बिहारी महतो और एके राय भी आंदोलन से जुड़ गये. और फिर आया 4 फरवरी 1972का वह ऐतिहासिक दिन, शिबू सोरेन और उनके साथियों ने बिनोद बिहारी महतो के घर पर बैठक की. बैठक में नया संगठन बनाने का फैसला लिया गया. नाम तय हुआ झारखंड मुक्ति मोर्चा. बिनोद बिहारी महतो को अध्यक्ष और शिबू सोरेन को महासचिव चुना गया.

चुनावी राजनीति के सफ़र की शुरुआत 1972 में जरीडीह से विधानसभा का चुनाव लड़कर की. यूं तो पूरा दक्षिण बिहार ही गुरूजी का मुरीद हो चूका था लेकिन चुनावी राजनीति के लिए गुरूजी ने संथालपरगना को अपना कर्मक्षेत्र बनाया. गुरूजी ने दुमका से 1980 में लोकसभा का पहला चुनाव लड़ा,हार गये. लेकिन 3 साल बाद हुए मध्यावधि चुनाव में उन्हें जीत हासिल हुई. 1991 में उनकी पार्टी का बिहार विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन हुआ जिसमें झामुमो का प्रदर्शन शानदार रहा. तब से लेकर आज तक झामुमो की ताकत लगातार बढ़ती गयी.8 बार लोकसभा और तीन बार राज्यसभा के सदस्य,2 बार केंद्र सरकार में मंत्री और तीन बार झारखण्ड के मुख्यमंत्री पद की उन्होंने शोभा बढ़ायी. झारखण्ड की सत्ता का वह भले ही लम्बे समय तक कभी भी नेतृत्व नहीं कर सके लेकिन यह उनके प्रति झारखण्ड की जनता के मन में असीम प्यार का ही सबूत है कि उनकी पार्टी झारखण्ड की सत्ता का नेतृत्व कर रही है और वे भौतिक रूप से अनुपस्थित होने के बावजूद करोड़ों दिलों पर राज कर रहे हैं.

गुरूजी भौतिक रूप से अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके संघर्ष की कहानियां, झारखण्ड और खासकर जनजातीय समुदाय के लिए उनका त्याग और समर्पण, सोना – हीरा झारखण्ड बनाने का उनका सपना युगों – युगों तक झारखण्ड और झारखंडियों के दिलो दिमाग में कायम रहेगा. हम आपके ऋण से मुक्त नहीं हो सकते गुरूजी.

दिशोम गुरु को नम आँखों से कृतज्ञ श्रद्धांजलि.

Share.
Leave A Reply

Exit mobile version