झारखंड राज्य के नामकरण में दिशोम गुरु शिबू सोरेन की निर्णायक भूमिका

रांची: झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड आंदोलन के प्रणेता दिशोम गुरु शिबू सोरेन केवल राजनीतिक नेता नहीं, बल्कि आदिवासी अस्मिता और सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक माने जाते थे। राज्य निर्माण के अंतिम चरण में जब नामकरण को लेकर असमंजस की स्थिति बनी थी, तब उन्होंने स्पष्ट और अडिग रुख अपनाते हुए कहा था – “यह राज्य केवल झारखंड कहलाएगा, कोई अन्य नाम स्वीकार नहीं।”

‘वनांचल’ नाम के प्रस्ताव का पुरजोर विरोध

बिहार पुनर्गठन की प्रक्रिया के दौरान केंद्र सरकार द्वारा नवनिर्मित राज्य के नाम के लिए ‘वनांचल’ का सुझाव सामने आया था। कई राजनीतिक दलों और नेताओं ने इस नाम को समर्थन भी दिया, लेकिन शिबू सोरेन ने इसे आदिवासी समाज की अस्मिता के विरुद्ध बताया। उनका मानना था कि ‘वनांचल’ शब्द आदिवासी आंदोलन के इतिहास, संघर्ष और सांस्कृतिक पहचान को नकारता है।

‘झारखंड’ नाम के पीछे उन्होंने ऐतिहासिक और भावनात्मक संदर्भ प्रस्तुत किए। उन्होंने संसद और जनसभाओं में कई बार दोहराया कि झारखंड कोई नया नाम नहीं, बल्कि सदियों पुराना एक पहचान है, जो जल, जंगल और जमीन से जुड़े आदिवासियों की आत्मा का प्रतीक है।

राज्य की आत्मा में बसा है ‘झारखंड’ नाम

पूर्व विधानसभा अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी ने शिबू सोरेन को श्रद्धांजलि देते हुए कहा, “अगर दिशोम गुरु न होते, तो यह राज्य आज ‘झारखंड’ के नाम से नहीं जाना जाता। उन्होंने इस नाम के माध्यम से पूरे आदिवासी समाज की संस्कृति, संघर्ष और स्वाभिमान को एक पहचान दी।”

नामधारी ने याद किया कि तत्कालीन भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी सहित अन्य नेताओं ने शुरुआत में ‘वनांचल’ नाम का समर्थन किया था। लेकिन जब शिबू सोरेन ने तथ्यपरक और भावनात्मक तर्क रखे, तो मोदी सहित सभी नेताओं ने ‘झारखंड’ नाम पर सहमति जताई।

झारखंड आंदोलन के नेता से नामकरण तक: शिबू सोरेन की ऐतिहासिक विरासत

शिबू सोरेन का संघर्ष केवल पृथक राज्य की मांग तक सीमित नहीं था। उन्होंने राज्य निर्माण के हर पहलू में सक्रिय भागीदारी निभाई। ‘झारखंड’ शब्द को उन्होंने नारे से पहचान में बदल दिया। यह केवल राजनीतिक निर्णय नहीं था, बल्कि आदिवासी समाज की सांस्कृतिक पुनर्स्थापना का प्रतीक था।

उनकी इस भूमिका को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षाविद और इतिहासकार उन्हें “झारखंड नामकरण के शिल्पी” के रूप में देखते हैं।

राजनीतिक सहमति से बना ‘झारखंड’, शिबू सोरेन की सोच ने जोड़ा सबको

राज्य गठन की प्रक्रिया के दौरान तमाम दलों के बीच मतभेद थे, लेकिन शिबू सोरेन के नेतृत्व और वैचारिक दृढ़ता ने राजनीतिक दलों को एकजुट किया। उनका यह तर्क निर्णायक रहा कि झारखंड नाम किसी जाति या भूगोल का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि यह उन समुदायों की पहचान है जिन्होंने सदियों से शोषण और उपेक्षा के खिलाफ संघर्ष किया है।

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